शॉपिंग मेनिया ठीक नहीं है


अमेरिका में हुए एक टेलीफोन सर्वे के अनुसार कंपलसिव बाइंग के नाम से जाना जाने वाला शाॅपिंग मेनिया अपने चरम पर एक मनोवैज्ञानिक रोग बन जाता है, एक ऐसा इंपल्स कंट्रोल डिसआॅर्डर जो अवसाद और चिंता के असामान्य स्तर से जुड़ा है। एक शोध के अनुसार 5.5 प्रतिशत पुरूषों और 6.0 प्रतिशत महिलाओं के लिए खरीदारी करना कम्पलशन है चाहे फिर उन्हें आर्थिक तंगियों का सामना करना पड़े या पति को पत्नी के और पत्नी को पति के कोप का शिकार होना पड़े मगर वे भी क्या करें। दरअसल ऐसा मस्तिष्क के भटकाव के कारण होता है। अनावश्यक शाॅपिंग करने से ऐसे लोगों में ऊर्जा का संचार होता है। वे अपने भीतर खुशी ढूंढने के बजाय उसे बाजार में ढूंढने जाते हैं। शाॅपिंग एडिक्शन केवल लत या सनक ही नहीं है बल्कि कई तरह की बीमारियों का समूह है जिसे इंपल्स कंट्रोल डिसआॅर्डर कहते हैं।


शाॅपिंग मेनिया जब हद से बढ़ जाए यानी कर्ज में डूबने, रिश्तों के तहस नहस होने की नौबत आ जाए, जब शाॅपिंग मेनिया से ग्रस्त व्यक्ति अपने को दोषी मानते हुए खरीदे सामान को छिपाने लगे, झूठ बोलने लगे तो अवश्य उसे काउंसलिंग की जरूरत है।
आज का युग विज्ञापनों का युग कहलाता है। विज्ञापन लोगों को कुछ इस तरह लुभाते हैं कि वे उस चीज को खरीदने के लिए लालायित हो उठते हैं। उन विज्ञापनों की स्टेªेटजी कुछ ऐसी होती है कि किसी भी तरह से वे अपने मकसद में कामयाब होने की कोशिश में रहते हैं। लोगों में उस चीज़ की गुणवत्ता को लेकर विश्वास पैदा हो जाता है। जरूरत हो न हो, बढ़िया चीज के फेर में वह खरीद ली जाती है। क्रेडिट कार्ड का जो चलन चल पड़ा है, उससे भी खरीदारी को बढ़ावा मिलता है, बाद में भले ही भावनाओं में बहकर बगैर सोचे समझे की गई शाॅपिंग पर अपराधबोध होने लगे। शाॅपिंग करने के इस गलत तरीके को मनोविज्ञान की भाषा में डिसफंक्शनल शाॅपिंग कहा जाता है। यह एक विशस सर्कल होता है जिसमें लोग बार-बार फंसते हैं और निकल नहीं पाते।



आखिर किस तरह उस आदत पर काबू पाया जा सकता है? जैसे शराबी को शराब की तलब सताती है, कुछ ऐसा ही हाल शाॅपिंग एडिक्शन से ग्रस्त लोगों का है। इस लत से बचने का उपाय है अपने मनोबल को मजबूत बनाना, भीतर खुशी तलाशना न कि दुनियावी चीजों के पीछे भागना। अपना मन रचनात्मक कार्यों में लगाना जिस से सच्ची हानिरहित खुशी हासिल की जा सकती है। शाॅपिंग को दिमागी फितूर न बनने दें।


यह कोई लाइलाज मानसिक रोग नहीं है। शोधकर्ताओं के अनुसार इंपल्स कंट्रोल प्राॅब्लम, विहेवियर प्राॅब्लम की तरह है। इस मेनिया का इलाज आस्था, नैतिकता, आचार संहिता के जरिए संभव है। कभी-कभी एलोपैथी दवाइयों की जरूरत भी पड़ सकती है। हां, आपका अपना कोआॅपरेशन बहुत मायने रखता है। मन में इरादे पक्के होने चाहिए। अपनी कमज़ोरियों को समझ पाने की बुद्धि होनी चाहिए। फिर इससे छुटकारा पाना मुश्किल नहीं।