घातक भी हो सकता है टायफाइड


मोतीझरा अर्थात् टायफाइड भारत तथा अन्य विकसित देशों में व्यापक रूप से विद्यमान रोग है।


यह रोग टायफाइड सालमोनेला टाइफी नायर (बैक्टीरिया) से होता है। ये बैक्टीरिया रोगी के तथा वाहक के  मलमूत्रा के जरिए वातावरण जल आदि को दूषित  करते हंै। इस जल से संक्रमित दूध एवं इससे निर्मित पदार्थ एवं अन्य खाद्य पदार्थों का सेवन इस रोग का प्रमुख कारण हैं। जल की अपेक्षा रोगाणु दूध में अधिक तेजी से बढ़ते हैं। इसके अलावा आइसक्रीम में ये आराम से महीना भर तक जीवित रह सकते हैं। इसके अतिरिक्त मक्खियां व रोगी द्वारा प्रयोग में ली गई चीजों का प्रयोग भी रोग फैलाने में सहायक हंै। टायफाइड रोग वैसे तो वर्ष में कभी भी हो सकता है परन्तु जुलाई से सितम्बर माह तक इसका प्रकोप सर्वाधिक होता है।


यह रोग अधिकतर 5 से 19 वर्ष के आयु वर्ग में अधिक होता है तथा महिलाओं एवं पुरूषों को समान रूप हो सकता है।


लक्षण:-


प्रारम्भिक लक्षण अशांति, सिरदर्द एवं आलस्य हैं। सम्पूर्ण शरीर में दर्द रहता है। बहुधा आरंभ में जाड़ा लगता है। ये लक्षण संक्रमण के लगभग 2 सप्ताह बाद प्रकट होने लगते हैं। कई बार इसमें 3-60 दिन भी लग सकते है।


बुखार आने लगता है और 105 डिग्री तक हो सकता है। नाड़ी की गति 80 से 90 प्रति मिनट हो जाती है। बुखार लगातार बना रहता है। 


शरीर पर हल्के गुलाबी चकते प्रायः रोग के छठे दिन दिखाई देते हंै जो धीरे-धीरे गायब हो जाते हैं।


अन्य लक्षण:-


जीभ का सफेद होना, पेट फूलना, तिल्ली तथा जिगर का बढ़ना, समय पर चिकित्सा नहीं कराने तथा साधारण आहार लेने से यह रोग गंभीर अवस्था में पहुंच सकता है। आंतों में छेद होना, रक्तस्राव होना, बेहोशी आना, शरीर के अन्य भागों में इंफेक्शन होना, जोड़ों में दर्द आदि अन्य घातक लक्षण हैं।


उपचार:- यह आंतों का रोग है अतः आहार पर विशेष ध्यान देना चाहिए। रोगी का आहार पौष्टिक विटामिन एवं खनिज लवणों से भरपूर होना चाहिए। सुपाच्य आहार दें। तला हुआ चटपटा भोजन बिल्कुल न दें। तरल आहार जैसे दलिया, सूप, जूस, दाल का पानी, आदि लाभदायक है। लौंग का पानी एवं शहद विशेष रूप से उपयोगी है। गैस उत्पन्न करने वाले गरिष्ठ पदार्थ न लिए जाए, यहां तक कि ठोस आहार से भी परहेज करना चाहिए।



रोकथाम एवं सावधानियां:-


बचाव इलाज से बेहतर है इसलिए उन परिस्थितियों से बचना चाहिए जिनसे टायफाइड फैलता है। टाइफाइड के जीवाणु मलमूत्रा द्वारा बाहर निकलते हैं तथा जल को दूषित करते हैं। यह मुख्यतः जल से फैलने वाला रोग है। 


टीकाकरण :-


इस रोग से बचाव के लिए टीकाकरण किया जाता है जो शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाता है।


पीने की दवाई एवं इंजेक्शन द्वारा टीकाकरण किया जाता है।


चार सप्ताह के अन्तराल पर दो टीके लगाए जाते हैं, फिर तीन साल बाद एक बूस्टर डोज दी जाती है। इस रोग की रोकथाम में टीकाकरण एक महत्त्वपूर्ण उपाय है।


सावधानियाँ :-


1. खुले स्थानों पर मल मूत्रा का त्याग नहीं हो।
2. शौच के पश्चात् हाथों को भली भांति धोयें।
3. स्वच्छ जल का प्रयोग करें। बरसात के दिनों में पानी उबाल कर पी लें तो अधिक उचित है।
4. खाद्य पदार्थों को सुरक्षित रखें।
5. भोजन से पूर्व हाथों को साफ करें।
6. अपने तथा समाज के स्वास्थ्य के प्रति जागरूक रहिए।