आयुर्वेद के अनुसार जिस व्यक्ति के दोष-अग्नि बल, धातुएं तथा मलक्रिया सम्यक दशा में हों, जिसकी इन्द्रियां व मन प्रसन्न हों, वही व्यक्ति स्वस्थ कहलाता है।
आयुर्वेद में ग्यारह इन्द्रियों में नेत्रों का अपना एक मुख्य स्थान है। यह तेज अंश है। इसमें पित्तवाहिनी दस ऊपरी भाग पर पहुंचती हैं। पृथ्वी आदि पंचमहाभूतों के सत्त अंश से इसकी रचना होती है।
इस नेत्र में मांस तत्व पृथ्वी से, रक्त आधार अग्नि से, कृष्ण अंश वायु से, अन्य स्रोत आकाश से पैदा होते हैं। नेत्र की लंबाई का 1/3 अंश कृष्ण मण्डल कहा जाता है तथा कृष्ण मण्डल का 1/7 अंश दृष्टि है।
नेत्र रोगी के पूर्वरूप सामान्यतः नेत्र रोगों के पूर्व रूप में निम्न लक्षण उत्पन्न होते हैंः-
- नेत्र गंदे, शोध युक्त, अश्रु, कण्डू, मलयुक्त।
- नेत्रों में गुरूत्व होना एवं जलन होना।
- नेत्रों में तोद (सुई के समान चुभने की पीड़ा) होना।
- आंखों में लाली आना।
- पलकों के कोशों में हल्का दर्द।
- शूक से भरे हुए पलक (किरकिराहट)
- आंखों द्वारा प्रकाश का निर्णय न कर पाना आदि नेत्र रोगों के पूर्व रूप हैं।
- नेत्र ज्योतिवर्द्धन के लिए औषध प्रयोग महात्रिफलाघृत या त्रिफलाघृत इस्तेमाल विधि-सुबह 8 बजे व शाम 8 बजे 1 तोला मात्रा एक पाव गरम कर शीतल किए गोदुग्ध या जो दूध सुलभ हो में मिलाकर सेवन करें, तथा ड्रापर से दो-दो बूंद घृत दोनों नेत्रों में डालें। दृष्टि वर्द्धन के लिए यह उत्तम औषध है।
त्रिफला चूर्णः-
त्रिफलाचूर्ण $ शुद्ध घृत $ छोटी मक्खी का शुद्ध शहद $ मिश्री चारों चीजें छोटी चम्मच से 1-1 माप रखकर एकत्र कर लें। रात्रि में शयन के आधा घण्टा पूर्व मुख व पैर धोकर सेवन करें। त्रिफला चूर्ण 10-15 ग्राम तक आधा लीटर साफ ताजे जल में रात्रि में भिगो दें। सुबह के समय साफ वस्त्र से छान कर आंखों को धोएं।
सप्तामृत लौह :-
मात्र-4-8 रत्ती (500 मिलीग्राम से 1 ग्राम) समय सुबह 7 बजे व रात्रि 8 बजे, अनुपान-शुद्ध घृत 1 ग्राम $ शहद 3 ग्राम मिलाकर चाटें।
एक विशेष अनुभूत प्रयोग-एक तांबे का छोटा लोटा लेकर सुबह अंदर व बाहर से अच्छी प्रकार मांजकर तुलसी के पौधे के बीच सुबह इस प्रकार रखें कि सम्पूर्ण दिन लोटे में सूर्य का प्रकाश पड़ता रहे। सूर्यास्त के बाद ताजा जल भरकर ताम्रपात्र का ढक्कन रखकर रात्रि पर्यन्त तक रखें। दूसरे दिन सुबह सूर्योदय के पूर्व मुखादि साफ कर नासामार्गो से धीरे-धीरे यह यथेच्छ पी जावें।
इससे आंख की ज्योति अच्छी रहती है, दृष्टि की ज्योति अच्छी रहती है। दृष्टि दौर्बल्यता उद्भुत विकारों का नाश होता है। सिर के बाल जो सफेद हो रहे है, उनका रूकना आंरभ हो जाता है। भोजन के बाद दोनों हाथों को धोकर, उन्हीं गीले हाथों को दोनों आंखों पर लगाना चाहिए। इसे नियम रूप से करने पर नेत्र ज्योति खराब नहीं होती।
पैरों के मध्य में विस्तीर्ण रूप से जो दो शिराएं हैं, वे बहुत रूपों में नेत्रों के अंदर पहुंची हुई हैं। इन शिराओं द्वारा दोनों पैरों में किया गया अभ्यंग उबटन आलेप आदि नेत्रों में पहुंच जाता है। दिनभर में चार बार पामिंग (आंखों की हथेली से ढकना) 15 मिनट तक एक बार में नियम रूप से रोजाना करने से नेत्र ज्योति सही रहती है।
नेत्रहित कारक पथ्य :-
स्वस्थ पुरूष जिसकी आंखें निरोगी हों, सदा शुद्ध गोघृत, जौ, गेहूं, साठी, शाली, चावलों का भात जिसका माड़ फेंका न गया हो अपितु उसी में पकाया गया हो, खावें। मूंग की छिलके न निकली हुई दाल,कोदों तथा कफपित्त नाशक धृत से बहुत स्निग्ध शाकों को एवं कफपित्त नाशक प्रचुर घृत युक्त जांगल मांसरस, अनार, मिश्री, शहद, सैन्धव लवण, त्रिफला व द्वाक्षा को खावें।
- मल-मूत्र, गुदा वायु, आंखों में अश्रु, छींक, वमन का वेग, हिचकी आदि तेरह शारीरिक प्राकृतिक रूपों में होने वाले अधारणीय वेगों को व रोकें।
- काम क्रोध, लोभ, ईष्र्या, अभिमान को धारण न करें।
- अजीर्ण, दिन में सोना, रात्रि में जागरण, अधिक धूप का सेवन का परित्याग करें।
- बहुत चमकीली, चंचल सूक्ष्म वस्तुओं का अवलोकन न करें।
- प्रायः तीक्ष्ण लाल मिर्च, अत्यन्त गर्म, बासी भोजन, सड़ा अध कच्चा गरिष्ठ, फिर से गर्म किए भोजन का परित्याग करें।