विवाह के विभिन्न ढकोसले


मुझे याद है जब हम बचपन और युवा अवस्था में थे तो शादियां कितनी सरल, सादगी और प्यार के बंधन से जुड़ी होती थी। आजकल तो अधिकतर शादियों में खड़े होकर खाना खाते हैं लेकिन पहले शादियों में अभ्यागतों को बिठा कर खाना परोसा जाता था। आपस में सगे संबंधी ही मदद करते थे। कोई बैरे, वेटर आदि नहीं बुलाए जाते थे।



कोई कार्ड नहंीं छपते थे। घर-घर जाकर पांच बादाम देकर ही निमंत्राण स्वीकार कर लिया जाता था। दुल्हन के पांच या ग्यारह जोड़े कपड़ों के बनाए जाते थे। दूल्हे के दो जोड़े, एक गर्म और एक ठंडा और जरूरत के थोड़े से बर्तन और मिठाई दी जाती थी। आज की तरह कोई आडम्बर नहीं रचाए जाते थे।



लोग एक दूसरे की मदद के लिए अपनी जान छिड़कते थे। शादी के कुछ दिन पहले ही मोहल्ले की औरतें इकट्ठी होकर गेहूं-दाल, मसाले, साफ करती और कूट देती थी। आपस में लोग दूध, पैसों आदि की मदद करते थे। यह सेवा जताई ही नहीं जाती थी क्योंकि मोहल्ले वाले अपना फर्ज समझते थे।



बीस-बीस दिन शादी का मेला रच जाता था। रिश्तेदार, बहू बेटियां, दस पंद्रह दिन पहले ही आ जाते थे और कामकाज में हाथ बंटाते थे। आजकल एक दिन भी रिश्तेदारों को घर पर ठहराना मुसीबत बन गई है।



आज शादी के एक दिन पहले ही घर में शादी की रौनक या खुशी दिखाई नहीं देती। झूठे आडम्बर जरूर दिखाई देते हैं। घर की दीवारें बत्तियों की लड़ियों से सजा दी जाती हैं लेकिन घर के अंदर कोई बंदा दिखाई नहीं देता।




आज के आडम्बर हैं - मेंहदी की रात, काॅकटेल पार्टी, बैचलर पार्टी, चैकी की रात। ये सब प्रबंध बैंक्वेट हाॅल में किए जाते हैं। वहां पर मेहमान दो तीन घंटे का समय अवश्य बर्बाद कर आते हैं जिसमें फैशन के आडम्बरों और पैसों की चकाचैंध के अतिरिक्त कुछ दिखाई नहीं देता। एक दूसरे के प्रति प्यार या लगाव कुछ दिखाई नहीं देता। बस खाना खाओ, शगुन दो और वापिस घर आ जाओ। शादी वालों की समस्याओं और खुशियों से कोई लेन देन नहंीं है। इतने तरह के खानों का प्रबंध किया जाता है कि आप सोच भी नहीं सकते, गिनाना तो दूर रहा। तरह-तरह के काउंटर सजे होते हैं। पंजाब का साग और मक्का की रोटी, राजस्थान की दाल-बाटी और गट्टे की सब्जी और दाल, चावल, चाइनीज खाना तथा न जाने क्या क्या? हर प्रांत का खाना आप खा सकते हैं लेकिन क्या आप इतने तरह के खाने एक समय में खा सकते हैं? फलों का अलग स्टाल होगा, पेय पदार्थ अलग स्थान पर मिलेंगे। मद्यपान का एक हिस्सा पंडाल में होगा। अगर आपका साथी कहीं बातचीत में किसी के साथ व्यस्त हो गया तो आप खाने की मेज पर उसका इंतजार करते रह जाएंगे या उठकर उसको ढूंढना पड़ेगा। इतना लंबा चैड़ा पंडाल होता है जहां साथी को ढूंढना भी आसान नहीं। क्या आप यह उचित समझते हैं?



कपड़ों, आभूषणों और बाकी साज सज्जा पर जो खर्च किया गया, उसका तो अनुमान ही नहीं लगा सकते। ऐसे भी पूंजीपति हैं जो एक शादी के लिए  50 से 100 करोड़ तक का बजट रखते हैं। दस से पन्द्रह करोड़ तक उच्च वर्ग के लोगों का खर्च हो गया हैं।  मध्यम वर्ग के लोग एक दो करोड़ तक खर्च करने की हैसियत रखते हैं लेकिन गरीब बेचारा तो पिस जाएगा। वो तो किसी हाल में भी इतना पैसा नहीं जुटा सकता।