घर के रिश्तों में घर बनाती राजनीति


फैमिली पाॅलिटिक्स यानी पारिवारिक राजनीति आजकल आम हो चली है। कैसे? यह मत पूछिये। सिर्फ अपने परिवार में झांक कर देखिए। पहले तो सिर्फ पारिवारिक फिल्मों में ही यह दिखाई देता था कि एक सास है जिसका रौब पूरे घर पर चलता है लेकिन जब नई बहू घर में आती है तो वह उसे बिल्कुल भी नहीं भाती और वह उसके खिलाफ चालें चलना शुरू कर देती है पर आजकल यह सब टीवी सीरियलों में आम हो चला है। क्या सास, क्या बहू, ननद, देवरानी, जेठानी जैसे सबको एक-दूसरे के खिलाफ षड़यन्त्र रचने का ही काम रह गया है। घर में बाकी तो कुछ काम ही नहीं होता।
ऐसा ही कुछ झलकता है हकीकत के परिवारों में। असल जिंदगी में भी रिश्तों के बीच पाॅलिटिक्स कब की पांव पसार चुकी है। यूं तो रिश्तों में प्यार और अपनेपन की ही जरूरत होती है मगर धीरे-धीरे इनमें राजनीति ही मुख्य रह जाती है।



समय बदला है और रिश्तों में भी बदलाव आया है। पहले संयुक्त परिवार होते थे। आजकल अधिकतर एकल परिवार ही होते हैं। बदला नहीं है तो सिर्फ इन रिश्तों में पाॅलिटिक्स का होना। हां, इस राजनीति में बढ़ोत्तरी जरूर हुई है चूंकि व्यक्ति दिनोंदिन स्वार्थी होता जा रहा है। स्वयं को बेहतर दिखाने और जताने के चक्कर में पहले भी सभी रहते थे और आज भी यही है, फिर यह प्रदर्शन परिवार के अन्दर ही क्यों न हो?


इसके लिए परिवार में सभी तरह की चालें चली जाती हंै, सारे ही काम किये जाते हैं चाहे वह भले हों या बुरे। ऐसा एकल परिवारों में कम और संयुक्त परिवारों में ज्यादा होता है चूंकि संयुक्त परिवारों में सास, ननद, जेठानी, देवरानी सभी अपनी सत्ता जमाना चाहती हैं। जहां उन्हें यह लगता है कि उनकी सत्ता किसी दूसरे के हाथ में जा रही है वे उसके खिलाफ चालें चलने लगती हैं ताकि अपना वर्चस्व बनाये रखें। इसके लिए वे किसी भी हद तक जा सकती हैं।


सास-बहू के रिश्तों में सबसे अधिक मतभेद माना जाता है। उनमें नोकझांेक तो होती है लेकिन इससे ज्यादा वे कुछ खास नहीं कर सकती । एक-दूसरे को नुकसान पहुंचाने के लिए आगे नहीं बढ़ सकती। हां, एक दूसरे से बेहतर बनने और दिखने की प्रतिस्पर्धा जरूर उनमें रहती है।



दरअसल जब बेटे की शादी हो जाती है तो मां यह सोचती है कि कहीं उसके बेटे के साथ-साथ पूरे घर पर भी उसका राज न चलने लगे। बहू को भी फिर यही लगने लगता है कि मेरी सास ने बहुत दिनों तक अपना राज कर लिया, अब मेरी बारी है, इसलिए जरा-जरा सी बातों से शुरू होकर यह कड़वाहट राजनीति का रूप ले लेती है।


कभी-कभी नई बहू का रसोई में जाकर अपनी मर्जी से कुछ बना लेना सास को अखर जाता है। उसे लगता है कि उसकी कोई अहमियत ही नहीं रही। बेटे ने अपनी बीवी पर अपने कपड़ों और जूतों की जिम्मेदारियां डाल दी तो मां को वह भी नागवार होता है। इससे तो मां की घर में जगह पहले वाली नहीं रहती। वह यह नहीं सोचती कि उस पर कुछ जिम्मेदारियां कम हो गई हैं बल्कि उसे लगने लगता है धीरे-धीरे उसकी बहू उसके बेटे के दिल से भी निकाल बाहर करेगी। उसे लगता है कि उसकी बहू ने उसका बेटा छीन लिया है।


इस तरह सास-बहू के रिश्तों में कड़वाहट आनी शुरू हो जाती है और दोनों अपनी-अपनी चालों से एक-दूसरे को नीचा दिखाने की कोशिशों में लग जाती हैं। घर-घर न रहकर राजनीति का अखाड़ा बन जाता है। अब तो सास-बहू ही नहीं बल्कि परिवार में जितने रिश्ते होते हैं, सभी के बीच पाॅलिटिक्स चलती है। इन पर दूर या पास रहने का कोई ज्यादा फर्क नहीं पड़ता। हां, पास रहकर यह पाॅलिटिक्स घातक भी साबित हो सकती है। परिवार में ननद, जेठानी, देवरानी, बाकी औरतें इस पाॅलिटिक्स का हिस्सा होती हैं। एक-दूसरे के खिलाफ षड़यन्त्र रचना ही बस उनका काम हो जैसे। एक-दूसरे को नीचा दिखाना ही सर्वोपरि हो जाता है।


रिश्तों से प्रेम तो कहीं खो ही गया है। ऊपर से मीठी-मीठी बातें और अन्दर इतनी कड़वाहट, कोई जान भी नहीं सकता कि किसी के दिल में क्या है? सब कुछ टीवी पर प्रसारित इन सास बहू वाले सीरियलों का किया-धरा है। इन सीरियलों में संयुक्त परिवार जरूर हैं मगर ढेरों षड़यन्त्रों वाले जिसकी हर औरत एक-दूसरे के खिलाफ षड़यन्त्र रचती फिरती है। किसे किस तरह सताना है या नीचा दिखाना है, यह सब शिक्षा इनसे मिलती है। एक औरत दूसरी औरत पर विश्वास नहीं कर सकती। क्या जाने? कौन सा षड़यन्त्र रचकर वह उसकी जिन्दगी को नरक बना दे।


यह सच है कि घरेलू राजनीति महिलाओं से ही है। सास-बहू, ननद, जेठानी आदि ये सब इसके पात्र हैं मगर इनमें पुरूष भी पीछे नहीं है। वे हर तरह की गतिविधियों में औरतों का बराबर साथ देते हैं। नई बहू पर अत्याचार करने से लेकर हत्या तक में वे अपनी औरतों का बराबर साथ देते हैं। तभी तो किसी पर विश्वास नहीं रहा, न किसी महिला पर, न किसी पुरूष पर। सारे रिश्ते बेमानी हो गये हैं। कहीं विश्वास नहीं रहा है जैसे चारों ओर से रिश्तों की डोर टूट गई हो।


परिवार में होने वाली यह राजनीति यूं ही नहीं पनपती। अक्सर एक औरत अपने वर्चस्व को दूसरी औरत से खतरा मानकर इस दिशा में आगे बढ़ती है। उसे खुद पर विश्वास नहीं होता। उसे असुरक्षा की भावना घेर लेती है। उसे लगता है उसने अब तक अपने परिवार में जो जगह बनाई है कहीं वह धूमिल न हो जाये। इस तरह की बातें वह अपने दिमाग में लाकर रिश्तों में राजनीति अहम बना लेती है। दूसरी औरत यानी ननद, जेठानी, नई बहू कोई भी हो, उसके अस्तित्व को स्वीकार कर ले और रिश्तों में एक-दूसरे के प्रति प्रेम हो तो राजनीति जैसी बात दिमाग में आये ही न।