अलग ही समस्यायें होती हैं किशोरों की


बचपन की समाप्ति और यौवन की दहलीज पर कदम बढ़ते ही किशोरावस्था से साक्षात्कार होता है। यह अवस्था व्यक्ति के विकास में अति महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करती है। इसमें बालक दिग्भ्रमित सा जान पड़ता है क्योंकि जब वह छोटे बच्चों के साथ खेलता है तो उससे कहा जाता है, ’अब तुम बच्चे नहीं हो। बड़े हो गये हो।‘ और जब वह बड़ों के मध्य बैठना उठना चाहता है, उसे यह कह कर चलता कर दिया जाता है कि वह अभी बच्चा है। जाकर बच्चों के साथ खेंले। बालक अपने को दोहरी व दुविधाग्रस्त मानसिकता के जाल में उलझा अनुभव करता है। यह मनोदशा कभी-कभी उसे पथभ्रमित बना कर अपराधों की ओर तो कभी नशे आदि की कुप्रवृत्तियों की राह का राही बनाती है, जहां निराशा और बर्बादी उसकी प्रतीक्षा कर रही होती है।



किशोरावस्था के दिनों में भावुकता का सागर हुंकारता रहता है जिसमें वासना, नेतृत्व की अभिलाषा और कुछ कर गुजरने की ख्वाहिशें अपना जाल पसारती रहती हैं। इस कारण किशोर-किशोरियों के मनोभावों, उनके रूझान व महत्वाकांक्षाओं का निरीक्षण बड़े ही स्वस्थ मन से किया जाना चाहिये क्योंकि यह वह अवस्था है जो मनुष्य के भविष्य की दिशा का निर्धारण करती है और उसके जीवन को संवारने व बर्बाद करने का अवसर भी प्रदान करती है। किशोरावस्था में कामेच्छा भी एक महत्त्वपूर्ण कारक के रूप में अपना प्रभाव स्थापित कर देती है। विपरीत लिंगी की ओर ध्यान आकृष्ट होने लगता है किन्तु हमारा भारतीय समाज सेक्स जैसे अनिवार्य विषय को एक रहस्य के आवरण में आवृत करने में ही अपनी भलाई मानता है। इस कारण हमारे किशोर किशोरियां चोरी-छुपे ही इसका अधकचरा ज्ञान प्राप्त करने का प्रयास करते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि वे सेक्स के विकृत और गर्हित स्वरूप को ही स्वीकार कर लेते हैं जो आत्महत्या, असफलता और निराशा के जाल में जकड़कर उन्हें नष्ट कर देता है।


‘सेक्स एजुकेशन‘ एक जटिल समस्या है। समाजशास्त्रियों और मनोवैज्ञानिकों में इस विषय को लेकर बहुत मतभेद है। इस संवेदनशील विषय की शिक्षा कैसे दी जाये, दी जाये या न दी जाये, कौन दे यह शिक्षा और इसके परिणाम क्या हांेगे एक अति विवादास्पद मुद्दा है किन्तु यह सच्चाई सभी स्वीकार करते हैं कि किसी भी तरह ‘सेक्स एजुकेशन‘ अवश्य दी जानी चाहिये, विधि औपचारिक या अनौपचारिक कुछ भी हो सकती है।


किशोरों में नेतृत्व करने अथवा किसी अन्य के नेतृत्व के प्रति पूर्ण विश्वास व समर्पण के भाव भी पाये जाते हैं। इस कारण उन्हें उत्तरदायित्वपूर्ण कार्य करने के लिये भी अवसर प्रदान किया जाना चाहिये। खेल-कूद, वाद विवाद प्रतियोगितायें व सांस्कृतिक कार्यक्रमांे का आयोजन भी विद्यालयों में अवश्य ही किया जाना चाहिये।



किशोर किशोरियों की मानसिक क्षमताओं, अभिरूचियों को नजरअन्दाज करके उन्हें अनचाहे व्यवसायों में लगाना, उनको विपरीतलिंगी हमजोलियों से न मिलने देना और उन पर सदा अविश्वास करना, उनमें विद्रोह की भावना को उत्पन्न कर देता है। इस आयु वर्ग के सदस्यों का प्रशिक्षण व मार्गनिर्देशन मनोवैज्ञानिक विधि से किया जाए तो उन्हें सफल नागरिक बनाया जा सकता है।