शीतकाल का आहार-विहार


एक जमाना था जब हमारे पूर्वज संयुक्त परिवारों में रहा करते थे। संयुक्त परिवार के बड़े बूढ़ों से उनके उत्तराधिकारियों को ऋतुओं के अनुसार बालकों, युवाओं, वृद्धों, स्त्रिायों, पुरुषों तथा गर्भवती स्त्रिायों को कौन-कौन सी वस्तुओं का कम या अधिक सेवन या त्याग करना चाहिए, का अनुभव मिलता रहता था पर आज छोटे-छोटे परिवारों को ऋतुओं के अनुसार आहार-विहार का ज्ञान न होने के कारण बालक और युवा लोग कई रोगों से ग्रसित हो जाया करते हैं।


हमारे आयुर्वेद वेत्ताओं ने अपने अपने ग्रंथों में मानव जाति को निरोग रखने के लिए ऋतुचर्याओं को बड़े ही अच्छे ढंगों से समझाया है पर हर परिवार तक उन ग्रंथों का पहुंच पाना संभव नहीं है। ऐसी दशा में केवल पत्रा-पत्रिकाएं ही एकमात्रा ऐसा माध्यम हंै जो अपने पाठकों तक ऋतुचर्याओं को लेखों द्वारा पहुंचा कर मानव कल्याण में सहयोग कर सकती हैं।


शीतकाल के प्रभाव:-


शीतकाल में सूर्य की किरणें तिरछी पड़ने के कारण हमारा बाहरी वातावरण बहुत ठण्डा हो जाता है। ठण्डे वातावरण के कारण हमारे शरीर के रोमकूप सिकुड़ जाते हैं जिसके कारण हमारे शरीर की गर्मी बाहर नहीं निकल पाती। अतः अन्दर की गर्मी बढ़ जाने के कारण हमारी जठराग्नि प्रबल होकर स्निग्ध और भारी खाद्य पदार्थों को पचाने में सक्षम हो जाती है।


हमारे भोज्य पदार्थ जितने अधिक और अच्छे पचेंगे, उतना ही अधिक रस बनेगा। रस अधिक बनेगा तो रक्त, मांस, मज्जा, हाड़ आदि भी अधिक बनेंगे। इससे हमारा शरीर निरोग और सुडौल बना रहेगा।


इस मौसम की रातें बड़ी होने के कारण रात में किया गया भोजन रात में ही में पच जाया करता है। अतः शीतकाल में प्रातः उठते ही नित्यकर्मों से निवृत्त होकर गरिष्ठ पाक, लड्डू, दूध, मलाई, मेवा, हलुआ आदि का नाश्ता लेकर अन्य कार्यों में लगना चाहिए। जो लोग महंगे खाद्य पदार्थ न खरीद सकें, उन्हें बाजरे का दलिया और थोड़ा सा गुड़ खा लेना चाहिए। जो लोग बाजरा भी न पचा सकें, उन्हें जो भी रूखा-सूखा मिल जाये, वही खा लेना चाहिए।



आहार अर्थात खानपान:-


शीतकाल (हेमन्त और शिशिर) को छोड़कर अन्य सभी मौसमों में नये अन्नों का सेवन करना वर्जित है जबकि शीत काल में खरीफ की फसल में पैदा हुए नये अन्नों का लेना पथ्य (लाभदायक) माना गया है। अन्य मौसमों में नये अन्न पचने में भारी पड़ सकते हैं। इस मौसम मेें मारवाड़ी बाजरा, शाली चावल, उड़द की दाल तथा थोड़े से गुड़ का सेवन करना सर्वश्रेष्ठ माना गया है।


मगसर, पौष और माघ के महीनों में खट्टे, मीठे, नमकीन, घृत, तेल, स्निग्ध और भारी पदार्थों, उड़द, गेहूं, मैदा, सूजी, चावल, बाजरा, ज्वार, मक्का, दूध तथा नमकीन अन्नों से बने पदार्थों का बना सामान्य गर्म भोजन करना चाहिए।


शीतकाल का आहार-विहार:-


शिशिर ऋतु (पौष-माघ) में सर्दी का प्रकोप और अधिक बढ़ जाता है अतः इस मौसम में सुगंधित अवलेह तथा बलवर्धक अरिष्ट ( जो कड़वे और कसैले न हों), खट्टी-मीठी चटनियां, मैदा, सूजी, सूरन की तरकारी तथा गन्ने से बने पदार्थों का सेवन बढ़ा देना चाहिए। इनके अलावा पालक, मूली, गाजर, आलू-टमाटर, लौकी, मेथी, बथुआ, शलजम, चुकन्दर, अरबी, कच्ची हल्दी तथा ग्वारपाठे की फलियों का सेवन बड़ा लाभदायक रहता है।


इस ऋतु में बल प्रदान करने वाले टानिक, रस, रसायन, लेह, चटनी, चूर्ण, पाक, मगजµमेवे आदि का सेवन करना चाहिए। जो लोग महंगे और स्निग्ध पदार्थ न खरीद सकें, उन्हें सफेद तिल या मूंगफली (मात्रा 25 से 50 ग्राम) थोड़े से गुड़ के साथ खूब चबा-चबा कर खानी चाहिए।


शाकाहारियों को एक आंवले का मुरब्बा नित्य लेना चाहिए। यदि एक आंवले के साथ शुद्ध एक चांदी का वरक और दो चुटकी सितोपलादि चूर्ण मिला लिया जाये तो अति उत्तम रहता है। जो व्यक्ति केशर-कस्तूरी, मगज-मेवों से बनी खीर का सेवन नहीं कर सकें, उन्हें लहसुन की खीर या पाक का सेवन करना चाहिए। जहां शिशिर ऋतु नहीं होती, और उन्हें भारी और स्निग्ध पदार्थों का हेमन्त ऋतु में ही सेवन कर लेना चाहिए।


जब शीत लहर या ठण्ड अधिक बढ़ जायें तो हरड़ और पीपल समान मात्रा में दुगनी मिश्री मिले चूर्ण (मात्रा चाय का छोटा चम्मच) गुनगुने पानी से प्रातःकाल सेवन करना चाहिए तथा नित्य शरीर पर मालिश करनी चाहिए।


आचार विचार निन्द्रादि:-


शीतकाल में गुनगुने पानी का सेवन, निर्धूम अग्नि से तापना, धूप सेंकना, अपनी उम्र तथा बलाबल के अनुसार व्यायाम करने का अर्थ है अपनी उम्र को बढ़ाना। आग हमेशा सीने से और धूप पीठ से ही सेंकनी चाहिए। बालकों, वृद्धों, रोगियों और स्त्रिायों को भारी व्यायाम भी नहीं करना चाहिए।
शीतकाल में आयुर्वेदिक सुगंधियों वाले तेलों या उबटनों का मर्दन करके अपनी सामथ्र्य के अनुसार दण्ड-बैठक, कसरत, अखाड़ेबाजी, भ्रमण आदि करने के बाद थोड़ा सा सुस्ताकर गुनगुने या सुहाते जल से स्नान करना चाहिए। हल्के गर्म या मोटे सूती कपड़ों को धारण, अगर का धूप, केशर-कस्तूरी का लेप, गर्म घर में सोना, रूई के वस्त्रों का ओढ़ना-बिछाना तथा स्त्राीगमन करना हितकर है। रात्रि में जल्दी सोना और सूर्योदय से पहले उठ जाना चाहिए। शीतकाल और बसन्त ऋतु में दिन में सोना और रात्रि में जागना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है।


शीतकाल के अपथ्य:-


शीतकाल में कड़वे, कसैले, तीखे, रूक्ष, हल्के तथा वातकारी पदार्थों तथा शीत लहर से बचते रहना चाहिए। सत्तू, शीतपेय, बर्फ, कुल्फी आदि भी नहीं खानी-पीनी चाहिए। शीतकाल में थोड़ा भोजन, लंघन करना, भूख मारना तथा अपने संवेगों को रोकना बड़ा हानिकारक होता है।


स्वयं को अरूचि पैदा करने वाले या सेवन से विकार पैदा करने वाली वस्तुओं और क्रियाओं को भी कुपथ्य मानकर चलना चाहिए। पथ्य का अर्थ सेवन योग्य, अपथ्य का अर्थ हानिकारक और कुपथ्य का अर्थ है जिन वस्तुओं का सेवन नहीं करना चाहिए, उन्हें सेवन कर लेना। कुपथ्य करने से बलवान से बलवान व्यक्ति भी क्षीणकाय होकर राजरोगी बन जाया करता है।



शेष विशेष:-


मानव जीवन के सात सुखों में पहला सुख निरोगी काया का माना गया है। आचार्य चरक के मतानुसार काया को निरोग रखने के तीन स्तम्भ हैं। 1ण् आहार 2. निद्रा 3. ब्रहम्चर्य। इन तीनों के समुचित पालन के बिना मनुष्य निरोग रह ही नहीं सकता।


ऋतुओं के विपरीत धर्मी आहार-विहारों को त्याग देना चाहिए चाहे वे आपके लिए कितने ही स्वादिष्ट और रूचिकर क्यों न हो। ऋतुओं तथा अपने शरीर के बलाबल के अनुसार उचित मात्रा तथा नियमित रूप से आहार-विहार, निद्रादि के सेवन करने वाले व्यक्तियों के पास रोग भी आने से कतराया करते हैं। अतः हमें स्वस्थ रहने के लिए हमारे आयुर्वेदवेताओं और आचार्यों के मतानुसार पथ्यापथ्य और ऋतुचर्या को धारण करना ही चाहिए। इसी से मानव जाति का हित है।