दर्द निवारक दवाइयों के...

सावधान रहिए: दर्द निवारक
दवाइयों के दुरूपयोग से



जब हमारी पीठ में एंेठन आ जाती है या हमारी मांसपेशियां ज्यादा काम के बोझ से ऐंठ जाती हैं, या एड़ी में मोच आ जाती है या कोई फोड़ा हो जाता है या सांस की नली में रोगाणुओं का संक्रमण हो जाता है तो हमारे शरीर में सूजन व जलन रूपी प्रतिक्रिया शुरू हो जाती है। इसे चिकित्सा की भाषा में प्रदाह या शोथ कहा जाता है।


इस प्रदाह की प्रतिक्रिया की बदौलत ही हमारी मांसपेशियां फिर से तंदुरूस्त होती हैं और फोड़ों में या मांसनली में मौजूद रोगाणु नष्ट किये जाते हैं। प्रदाह प्रतिक्रिया ही संक्रमण का समुचित जवाब देती है। यह प्रदाह प्रक्रिया कई तरह की होती है। इनमें से कुछ तो बाहरी घुसपैठियों को नष्ट करने का काम करती हैं और अन्य शरीर को फिर से स्वस्थ बनाने में मदद करती हैं।


उपरोक्त बातों से यह स्पष्ट है कि कोई भी चीज जो प्रदाह पर प्रतिकूल असर डालती है वह रोगाणुओं की विनाश क्षमता को बढ़ाने का ही काम करती हंै। इसके अलावा प्रदाह को रोक कर, हम शरीर के स्वस्थ होने की क्रिया को भी धीमा कर देते हैं। दूसरे शब्दों में यूं कहा जा सकता है कि ऐसे सारे उपचार जो प्रदाह को रोकते हैं, वे संक्रमण व चोट के असर को बढ़ा डालते हैं और शरीर में मरम्मत की क्रिया को धीमा करके बीमारी को जीर्ण रूप प्रदान करने में मदद पहुंचाते हैं।


सवाल यह उठता है कि क्या दर्द का सम्पूर्ण सफाया करना एक उचित लक्ष्य है? कई लोग यह दलील देते हैं कि ‘व्यक्ति को दर्द का शिकार‘ नहीं बनने दिया जाना चाहिए। ऐसे लोगों को यह ध्यान रखना चाहिए कि व्यक्ति को दवाइयों का शिकार बनाना भी उचित नहीं। यदि हम ‘उफ‘ की आवाज निकलते ही प्रदाहरोधी औषधि देने लगेंगे तो नतीजा यह होगा कि व्यक्ति की दर्द सहने की क्षमता कम होती जायेगी और अगली बार दुगुने दर्द के साथ वह व्याधि पुनः उपस्थित हो जाएगी।



गैर-स्टीराॅयड (प्रदाहरोधी या दर्दनिवारक) औषधियों के प्रचलन का एक कुप्रभाव देखने को मिलता है। आमतौर पर दर्द, बुखार या काम न कर पाने की स्थिति में मरीज मजबूर हो जाता है कि वह अपने क्षतिग्रस्त अंग को आराम दे। उक्त औषधियों की वजह से दर्द, बुखार वगैरह के लक्षण तो दूर हो जाते हैं परन्तु मरीज को जरूरी आराम व देखभाल नहीं मिल पाती।


इन प्रदाहरोधी औषधियों के संबंध में एक और महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि स्टीराॅयड औषधियों की तरह ही ये भी सुरक्षा का मुगालता पैदा करते हैं। इन औषधियों के सेवन से रोग के लक्षण गायब हो जाते हैं और रोग की असली पहचान संभव नहीं हो पाती।


फिलहाल तो यह भी पूर्ण रूप से स्पष्ट नहीं हो सका है कि प्रदाहरोधी औषधियां संक्रमण की संभावना को बढ़ाती हैं या नहीं परन्तु यह अवश्य ही कहा जा सकता है कि इनकी वजह से ही संक्रमण की गंभीरता में इजाफा होता है। अधिकांश चिकित्सक प्रदाह की स्थिति में अक्सर प्रदाहरोधी गैर-स्टीराॅयड दवाइयां दे देते हैं। इसे अंग्रेजी में ‘नाॅन स्टीराॅयड एंटी इंफ्लेमेटरी ड्रग्स‘ कहकर पुकारा जाता है। इसका स्पष्ट अर्थ यह होता है कि इन औषधियों में स्टीराॅयड नामक रासायनिक पदार्थ नहीं होते। अब इस पर विचार करना भी आवश्यक हो जाता है कि जब आत्म-प्रतिरोध से संबंधित रोगों को छोड़कर इन औषधियों के इस्तेमाल का कोई औचित्य ही नहीं है तो फिर क्यों हर किस्म के प्रदाह (दर्द) के लिए इन औषधियों का उपयोग धड़ल्ले से किया जाता है।


चिकित्सक की राय लिये बगैर भी प्रायः लोग सिर दर्द, शरीर दर्द, पेट दर्द, घाव के दर्दों आदि पर अपनी इच्छा से दर्दरोधी टेबलेट या गालियों को खरीदकर ले आते हैं और इस्तेमाल करके राहत पाते हैं। उन्हें शायद यह नहीं मालूम होता कि क्षणिक शान्ति के पीछे वे अपनी शरीर की प्राकृतिक प्रक्रियाओं में कितनी बाधा डालते रहते हैं। मानसिक कुण्ठा, विस्मृति, विक्षिप्तता आदि अनेक मनोरोगों के कारणों को वे स्वयं ही आमंत्रित करते रहते हैं।


गैर-स्टीराॅयड (प्रदाहरोधी) औषधियों के अति उपयोग ने आज हालात ऐसे बना दिये हैं कि छोटी-छोटी चोट से होने वाली दर्द को भी व्यक्ति सहन नहीं कर पाता और उसे तत्काल दर्द निवारक औषधि की जरूरत होती है। चिकित्सा जगत में कम से कम इस विषय पर विचार-विमर्श अवश्य ही होना चाहिए ताकि हमें ऐसी औषधियों को तलाश करने में मदद मिल सके जो प्रदाह की क्रियाओं में बाधा न पहुंचाए और मानव की सहनशक्ति पर दुष्प्रभाव न डाले। आम सहमतियों एवं जागरूकता को बनाकर ही दर्द निवारक दवाइयों के दुरूपयोग से लोगों को रोका जा सकता है।